डा भीम राव अम्बेडकर
भीमराव अंबेडकर का जन्म महार जाति में हुआ था जिसे लोग अछूत और बेहद निचला वर्ग मानते थे। बचपन में भीमराव अंबेडकर के परिवार के साथ सामाजिक और आर्थिक रूप से गहरा भेदभाव किया जाता था। भीमराव अंबेडकर के बचपन का नाम रामजी सकपाल थाण् अंबेडकर के पूर्वज लंबे समय तक ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी की सेना में कार्य करते थे और उनके पिता ब्रिटिश भारतीय सेना की मऊ छावनी में सेवा में थेण् भीमराव के पिता हमेशा ही अपने बच्चों की शिक्षा पर जोर देते थे।
1894 में भीमराव अंबेडकर जी के पिता सेवानिवृत्त हो गए और इसके दो साल बादए अंबेडकर की मां की मृत्यु हो गईण् बच्चों की देखभाल उनकी चाची ने कठिन परिस्थितियों में रहते हुये की। रामजी सकपाल के केवल तीन बेटेए बलरामए आनंदराव और भीमराव और दो बेटियाँ मंजुला और तुलासा ही इन कठिन हालातों मे जीवित बच पाए। अपने भाइयों और बहनों मे केवल अंबेडकर ही स्कूल की परीक्षा में सफल हुए और इसके बाद बड़े स्कूल में जाने में सफल हुये। अपने एक देशस्त ब्राह्मण शिक्षक महादेव अंबेडकर जो उनसे विशेष स्नेह रखते थे के कहने पर अंबेडकर ने अपने नाम से सकपाल हटाकर अंबेडकर जोड़ लिया जो उनके गांव के नाम ष्अंबावडेष् पर आधारित था।
8 अगस्तए 1930 को एक शोषित वर्ग के सम्मेलन के दौरान अंबेडकर ने अपनी राजनीतिक दृष्टि को दुनिया के सामने रखाए जिसके अनुसार शोषित वर्ग की सुरक्षा उसकी सरकार और कांग्रेस दोनों से स्वतंत्र होने में है।
ज्योतिबा फुले
विद्या बिना मति गयीए मति बिना नीति गयी द्य
नीति बिना गति गयीए गति बिना वित्त गया द्य
वित्त बिना शूद गयेए इतने अनर्थए एक अविद्या ने किये द्यद्य
महात्मा ज्योतिबा फुले ;ज्योतिराव गोविंदराव फुलेद्ध को 19वीण् सदी का प्रमुख समाज सेवक माना जाता हैण् उन्होंने भारतीय समाज में फैली अनेक कुरूतियों को दूर करने के लिए सतत संघर्ष कियाण् अछुतोद्वारए नारी.शिक्षाए विधवा दृ विवाह और किसानो के हित के लिए ज्योतिबा ने उल्लेखनीय कार्य किया हैण् उनका जन्म 11 अप्रैल 1827 को सतारा महाराष्ट्र ए में हुआ थाण् उनका परिवार बेहद गरीब था और जीवन.यापन के लिए बाग़.बगीचों में माली का काम करता थाण् ज्योतिबा जब मात्र एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का निधन हो गया थाण् ज्योतिबा का लालन दृ पालन सगुनाबाई नामक एक दाई ने कियाण् सगुनाबाई ने ही उन्हें माँ की ममता और दुलार दियाण्
7 वर्ष की आयु में ज्योतिबा को गांव के स्कूल में पढ़ने भेजा गयाण् जातिगत भेद.भाव के कारण उन्हें विद्यालय छोड़ना पड़ाण् स्कूल छोड़ने के बाद भी उनमे पढ़ने की ललक बनी रहीण् सगुनाबाई ने बालक ज्योतिबा को घर में ही पढ़ने में मदद कीण् घरेलु कार्यो के बाद जो समय बचता उसमे वह किताबें पढ़ते थेण् ज्योतिबा पास.पड़ोस के बुजुर्गो से विभिन्न विषयों में चर्चा करते थेण् लोग उनकी सूक्ष्म और तर्क संगत बातों से बहुत प्रभावित होते थेण्
अरबी.फ़ारसी के विद्वान गफ्फार बेग मुंशी एवं फादर लिजीट साहब ज्योतिबा के पड़ोसी थेण् उन्होंने बालक ज्योतिबा की प्रतिभा एवं शिक्षा के प्रति रुचि देखकर उन्हें पुनः विद्यालय भेजने का प्रयास कियाण् ज्योतिबा फिर से स्कूल जाने लगेण् वह स्कूल में सदा प्रथम आते रहेण् धर्म पर टीका दृ टिप्पणी सुनने पर उनके अन्दर जिज्ञासा हुई कि हिन्दू धर्म में इतनी विषमता क्यों हैघ् जाति.भेद और वर्ण व्यवस्था क्या हैघ् वह अपने मित्र सदाशिव बल्लाल गोंडवे के साथ समाजए धर्म और देश के बारे में चिंतन किया करतेण्
संत गाडगे बाबा की जीवनी
डेबुजी झिंगराजि जानोरकर साधारणतः संत गाडगे महाराज और गाडगे बाबा के नाम से जाने जाते थेए वे एक समाज सुधारक और घुमक्कड भिक्षुक थे जो महाराष्ट्र में सामाजिक विकास करने हेतु साप्ताहिक उत्सव का आयोजन करते थेण् उन्होंने उस समय भारतीय ग्रामीण भागो का काफी सुधार किया और आज भी उनके कार्यो से कई राजनैतिक दल और सामाजिक संस्थान प्रेरणा ले रहे हैण्जीवन रू उनका वास्तविक नाम देवीदास डेबुजी थाण् महाराज का जन्म महाराष्ट्र के अमरावती जिले के अँजनगाँव सुरजी तालुका के शेड्गाओ ग्राम में एक धोबी परिवार में हुआ थाण् वे एक घूमते फिरते सामाजिक शिक्षक थेए वे पैरो में फटी हुई चप्पल और सिर पर मिट्टी का कटोरा ढककर पैदल ही यात्रा किया करते थेण् और यही उनकी पहचान थीण् जब वे किसी गाँव में प्रवेश करते थे तो वे तुरंत ही गटर और रास्तो को साफ़ करने लगतेण् और काम खत्म होने के बाद वे खुद लोगो को गाँव के साफ़ होने की बधाई भी देते थेण् गाँव के लोग उन्हें पैसे भी देते थे और बाबाजी उन पैसो का उपयोग सामाजिक विकास और समाज का शारीरिक विकास करने में लगातेण् लोगो से मिले हुए पैसो से महाराज गाँवो में स्कूलए धर्मशालाए अस्पताल और जानवरो के निवास स्थान बनवाते थेण्
रैदास
रैदास नाम से विख्यात संत रविदास का जन्म सन् 1388 ;इनका जन्म कुछ विद्वान 1398 में हुआ भी बताते हैंद्ध को बनारस में हुआ था। रैदास कबीर के समकालीन हैं। रैदास की ख्याति से प्रभावित होकर सिकंदर लोदी ने इन्हें दिल्ली आने का निमंत्रण भेजा था। मध्ययुगीन साधकों में रैदास का विशिष्ट स्थान है। कबीर की तरह रैदास भी संत कोटि के प्रमुख कवियों में विशिष्ट स्थान रखते हैं।कबीर ने श्संतन में रविदासश् कहकर इन्हें मान्यता दी है। मूर्तिपूजाए तीर्थयात्रा जैसे दिखावों में रैदास का बिल्कुल भी विश्वास न था। वह व्यक्ति की आंतरिक भावनाओं और आपसी भाईचारे को ही सच्चा धर्म मानते थे। रैदास ने अपनी काव्य.रचनाओं में सरलए व्यावहारिक ब्रजभाषा का प्रयोग किया हैए जिसमें अवधीए राजस्थानीए खड़ी बोली और उर्दू.फ़ारसी के शब्दों का भी मिश्रण है। रैदास को उपमा और रूपक अलंकार विशेष प्रिय रहे हैं। सीधे.सादे पदों में संत कवि ने हृदय के भाव बड़ी स़फाई से प्रकट किए हैं। इनका आत्मनिवेदनए दैन्य भाव और सहज भक्ति पाठक के हृदय को उद्वेलित करते हैं। रैदास के चालीस पद सिखों के पवित्र धर्मग्रंथ श्गुरुग्रंथ साहबश् में भी सम्मिलित हैं।
कहते हैं मीरा के गुरु रैदास ही थे।
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